अदृश्य है ब्राह्मणों की एकता

सगठन से छोटे-छोटे राज्य भी उन्नत हो सकते हैं , किंतु विभेद उत्पन्न होने से बड़े राज्य भी नष्ट हो जाते हैं। समाज संगठित होकर खड़ा रहता है , किंतु विभाजित होते ही गिर पड़ता है। संगठन में बहुत ताकत है । समाज संगठन को लेकर कुछ लोग मंच से भ्रम फैलाते हैं कि समाज के लोग परस्पर टांग खींचते हैं ।...समाज कभी संगठित नहीं हो सकता....। आदि। यदि हम सकारात्मक सोच से देखेंगे तो हम पाएंगे कि हर समाज संगठित है । संगठन के बल पर ही वह उन्नति के पथ पर बढ़ता जा रहा है। हाल ही मध्यप्रदेश के कुक्षी निवासी एक बुजुर्ग पंडित जी को छोटा उदयपुर के युवक का विवाह कराने के लिए बुलाया गया । विवाह गुजरात के पानवड़ में संपन्न हुआ । विवाह उपरांत पंडित जी ने विदा की अनुमति के साथ दक्षिणा देने को कहा । इस बात पर विवाद हुआ और कथित रूप से पंडित जी की पिटाई भी की गई । आरोप है कि उन्हें बंधक बना लिया गया था। परिजनों ने पंडित जी को जैसे-तैसे मुक्त करा लिया । इस घटना से धार व आलीराजपुर जिले के ब्राह्मण समाज में गहरा आक्रोश व्याप्त हुआ। समाज ने संगठित होकर निर्णय लिया कि संबंधित समाज के लोग उचित कार्रवाई करें, अन्यथा उक्त समाज के धार्मिक कार्यक्रमों को संपन्न कराने के लिए कोई भी ब्राह्मण नहीं जाएगा। स्थानीय समाज जनों के हस्तक्षेप के बाद संबंधित लोगों को बुलवाकर ब्राह्मण समाज के सामने सार्वजनिक रूप से माफी मंगवाई गई । संगठन की इस ताकत के आगे अन्य संगठन के लोग सक्रिय हुए और संबंधित परिवार के व्यक्ति से माफी मांगने को मजबूर होना क्यों राग अलापते रहते हैं कि हम असंगठित हैं, समाज को संगठित करना यानि मेंढक तोलने जैसा है...। यह सब गलत है। 21वीं सदी है । देश बदल रहा है । यानि देशवासियों की सोच बदल रही है। नए-नए समाज का उदय हो रहा है। नाम व स्वरूप भले ही अलग हो , किंतु संगठनों के माध्यम से जनमानस संगठित हो रहा है । मत भिन्नता भले ही हो, किंतु किसी एक घटनाक्रम पर हम सब एक हैं । महाभारत के शांति पर्व व अनुशासन पर्व में ब्राह्मणों के महत्व का बहुत ही विस्तार से वर्णन है । उसमें स्पष्ट कहा है - किसी भी राजा को ब्राह्मणों से विरोध नहीं करना चाहिए ब्राह्मण में राजा बदलने की क्षमता हैब्राह्मण का तप ही बल है। तप ही शस्त्र है । ब्राह्मणों का विरोध करने पर कई राजनीतिक दलों की सरकारें पराजित हो चुकी है । ब्राह्मणों की हुंकार से राजा सदैव भयभीत रहता है । ब्राह्मणों की मंगल कामना और आशीर्वाद से सर्वत्र शांति , सुख और आनंद की प्राप्ति होती है। हमें हमारे ऋषि-मुनियों से सीख लेना चाहिए - इतिहास गवाह है । ऋषि - मुनियों में परस्पर विवाद कभी नहीं हुए । वशिष्ठ विश्वामित्र विवाद एक अपवाद है, परंतु जब विश्वामित्र ब्रह्मर्षि बने , उसके बाद दोनों ऋषियों में परस्पर अगाध आदर भाव रहा। मत भिन्नता होना अलग बात है, किंतु मनभेद कभी नहीं रहा । आज पंचांग भेद को लेकर चर्चा जोरों पर है। इसका कोई विशेष कारण नहीं है। नासमझ और कथित विद्वानों द्वारा घोषित किए गए कंप्यूटर के कारण को हम ही नहीं समझ पा रहे हैं , अतः यह मसला भी गंभीर नहीं है। भ्रमित लोग भ्रम फैलाते हैं कि ब्राह्मणों में एकता नहीं होने के कारण दो तिथि, दो पर्व, दो उत्सव हो रहे हैं । ऐसा बिल्कुल नहीं है। मेरी कुछ पंचांग निर्माताओं से विस्तृत चर्चा हुई । सार बात सिर्फ सैद्धांतिक गणित की है। कोई उज्जैन की वेधशाला से गणना कर रहे हैं तो कुछ जोधपुर को आधार बनाकर गणना कर रहे हैं। इसी कारण समय का भेद आ रहा है । इसी भेद ने विप्र एकता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया भारत देश में शंकराचार्य परंपरा आज भी विद्यमान है । यदि उक्त प्रकार के भेद उत्पन्न होते हैं तो जगद्गुरु शंकराचार्य जी का निर्णय अंतिम माना जाता है । कहने का आशय यह है कि हर समस्या का समाधान मौजूद है । हम ब्राह्मणों को तो सिर्फ इतना सा संकल्प लेना है कि 'हम न किसी ब्राह्मण की आलोचना करेंगे और न किसी की आलोचना सुनेंगे ।' ब्राह्मणों की एकता बस इसी मंत्र में निहित है । ब्राह्मणों की एकता उसी प्रकार दिखती नहीं है जिस प्रकार काठ में अग्नि ।